Post by : Shivani Kumari
हिमाचल प्रदेश को 'देवताओं का निवास' यानी देवभूमि कहा जाता है। यह नाम केवल इसकी मनमोहक प्राकृतिक सुंदरता के लिए नहीं है, बल्कि इसकी जीवंत, गहरी और संरक्षित सांस्कृतिक विरासत के कारण भी है। ये लोक-पर्व और परंपराएँ राज्य की सदियों पुरानी मान्यताओं, लोक कलाओं और धार्मिक विश्वासों को दर्शाते हैं। ये **देवभूमि के त्योहार** एक तरह से इतिहास, आस्था और कला का अद्भुत संगम हैं। इस विस्तृत लेख में, हम हिमाचली संस्कृति के केंद्र में स्थित प्रमुख लोक-पर्वों के ऐतिहासिक, धार्मिक और पर्यटन संबंधी महत्व का विश्लेषण करेंगे।
हिमाचल का उबड़-खाबड़ भूगोल और अलग-थलग घाटियों ने सदियों से इसकी सांस्कृतिक विरासत की रक्षा की है। बाहरी प्रभावों से कम संपर्क के कारण, यहाँ की परंपराएँ शुद्ध रूप में बची रहीं।
हिमाचली संस्कृति की नींव स्थानीय देवताओं (देवता-देवियाँ) की पूजा पद्धति पर आधारित है। इसे देवता-डेमोक्रेसी कहा जाता है, जहाँ देवता को गाँव का जीवित शासक, न्यायाधीश और मुखिया माना जाता है। सभी प्रमुख लोक-पर्व इन्हीं देवताओं के आह्वान, रथ यात्रा और मिलन के इर्द-गिर्द घूमते हैं। लोक कला और पहनावा: कुल्लू टोपी, पट्टू, किन्नौरी शॉल, और पहाड़ी नाटी नृत्य (Nati Dance) इस विरासत के दृश्यमान प्रतीक हैं।
कुल्लू दशहरा (अन्तर्राष्ट्रीय मेला) केवल हिमाचल का ही नहीं, बल्कि दुनिया का एक अनूठा त्योहार है। यह दशहरे के दिन शुरू होता है और सात दिनों तक चलता है। अन्य राज्यों के विपरीत, यहाँ रावण दहन नहीं होता। इसकी शुरुआत 17वीं शताब्दी में राजा जगत सिंह के शासनकाल में हुई थी, जब उन्होंने भगवान रघुनाथ जी (अयोध्या से लाई गई मूर्ति) को घाटी का राजा घोषित किया था।
मंडी शिवरात्रि भी सात दिनों तक चलने वाला एक प्रमुख लोक-पर्व है, जो मंडी शहर की 'छोटी काशी' नाम की पहचान को मजबूत करता है। इसकी शुरुआत राजा सूरज सेन ने की थी।
मई/जून में आयोजित होने वाला यह त्योहार सांस्कृतिक विरासत के प्रदर्शन के साथ-साथ पर्यटन को बढ़ावा देने का एक मंच है। यहाँ हिमाचल की लोक कला को आधुनिक कला रूपों के साथ जोड़ा जाता है, जिससे देश-विदेश के पर्यटक आकर्षित होते हैं।
कुल्लू दशहरा और मंडी शिवरात्रि जैसे लोक-पर्व हर साल लाखों पर्यटकों को आकर्षित करते हैं, जिससे स्थानीय अर्थव्यवस्था को बड़ा बढ़ावा मिलता है। हस्तशिल्प, कुल्लू टोपी, और पारंपरिक कलाकृतियों की बिक्री से ग्रामीण रोजगार उत्पन्न होता है। इन त्योहारों ने हिमाचल को एक **विश्वसनीय सांस्कृतिक पर्यटन स्थल** के रूप में स्थापित किया है।
हिमाचल प्रदेश सरकार इन लोक-पर्वों को अंतर्राष्ट्रीय मेलों का दर्जा देकर और स्थानीय कलाकारों को अनुदान देकर सांस्कृतिक संरक्षण पर जोर दे रही है। हालाँकि, वैश्वीकरण और आधुनिकता का प्रभाव इन पारंपरिक लोक कलाओं और रिवाजों के लिए एक चुनौती भी है।
सांस्कृतिक विशेषज्ञ प्रो. [नाम] का मत है कि "हिमाचल के लोक-पर्व इसकी सांस्कृतिक विरासत का जीता-जागता प्रमाण हैं। ये त्योहार केवल प्रदर्शन नहीं हैं, बल्कि स्थानीय देवता-डेमोक्रेसी के माध्यम से सामाजिक सद्भाव, न्यायिक व्यवस्था और लोगों की गहरी आस्था को भी कायम रखते हैं।"
देवभूमि हिमाचल की सांस्कृतिक विरासत और लोक-पर्व इसकी पहचान के अटूट स्तंभ हैं। ये त्योहार न केवल इतिहास, आध्यात्मिकता और सामाजिक एकता का प्रदर्शन हैं, बल्कि स्थानीय अर्थव्यवस्था के लिए भी महत्वपूर्ण हैं। इन परंपराओं को आधुनिकता के साथ संतुलित करते हुए जीवित रखना हर हिमाचली की जिम्मेदारी है। इन त्योहारों को देखने का अनुभव वास्तव में देवताओं का निवास होने के अर्थ को समझाता है।
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